![शूरवीर रावत की लिखी पुस्तक ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ की समीक्षा डा. नंदकिशोर हटवाल द्वारा शूरवीर रावत की लिखी पुस्तक ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ की समीक्षा डा. नंदकिशोर हटवाल द्वारा](https://i2.wp.com/mirroruttarakhand.com/wp-content/uploads/2018/11/shur1-horz.jpg?resize=684%2C300)
शूरवीर रावत की लिखी पुस्तक ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ की समीक्षा डा. नंदकिशोर हटवाल द्वारा
मेरे मुल्क की लोककथाएं
क्या आपने ये किस्सा सुना है कि एक शादी में लड़की
वालों ने लड़के वालों के सामने शर्त रखी कि बाराती सभी
जवान आने चाहिए, बूढ़ा कोई न हो। लेकिन बाराती
बरडाली के बक्से में छुपाकर एक सयाना ब्यक्ति ले गए।
बारात पहुंची तो लड़की के पिता ने शर्त रखी कि सभी
मेहमानो के लिए हमने एक-ंएक बकरे की व्यवस्था कर रखी है।
हर एक को एक बकरा खाकर खत्म करना होगा तभी अगले दिन
दुल्हन विदा होगी। यह शर्त सुन कर सभी बाराती सन्न रह गए।
एक बाराती ने बरडाली के बक्से के पास जाकर सारी बातें
बुजुर्ग से कही तो बुजुर्ग ने उपाय बताया कि एक-ंएक करके बकरा
मारो और मिल बांट कर खाओ। फिर तो सारी रात ऐसा ही किया
और बाराती शर्त जीत गए।
अगर आपने यह किस्सा सुना है और अपनी यादों को ताजा
करना चाहते हैं तो आप शूरवीर रावत द्वारा संग्रहित, लिप्यंकित
लोककथा संग्रह ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ जरूर पढ़ें।
अगर नहीं सुना है तो तब तो जरूर पढ़ें। समझ लीजिए आपने अपने
समय और समाज की नब्ज पकड़ ली।
शूरवीर रावत द्वारा संग्रहीत इस लोककथा संग्रह की
लोककथाएं अपने दौर की सामाजिक सोच और मनोदशाओं
को प्रकट कर रही है। ये लोककथाएं बता रही हैं कि हमारे
समाज की क्या मान्यताएं और मूल्य हैं, क्या पूज्य, क्या
सम्मानजनक और क्या अपमानजनक है। हमारे समाज में किस प्रकार
की सोच, विश्वास, अंधविश्वास प्रचलित हैं। ये कथाएं समाजिक सच
को पूरी ईमानदारी के साथ बयां कर रही हैं।
संग्रह में 42 कथाएं संग्रहीत हैं। ये कथाएं लेखक
ने किसी क्षेत्र विशेष में जाकर संग्रहीत नहीं की बल्कि बचपन से
लेकर अब तक अपनी स्मृतियों में संचित कथाओं को लिख लिया
है। यूं भी लोककथाएं स्मृतियो का आख्यान होती हैं।
लेखक के अनुसार, ‘‘ह्यूंद की सर्द रातों में भट्ट,
बौंर या भुने हुए आलू खाते हुए और कभी किसी के घर
में शादी ब्याह होने पर पड़ाव किसी दोस्त के घर पर होता
तो वहां उसकी दादी या घर की ही किसी बुजुर्ग महिला या
पुरूष से अनेक कथाएं मैंने सुनी हैं।’’
इन कथाओं का फलक विस्तृत है। इन कथाओं को आप सिर्फ गढ़वाल या
उत्तराखण्ड की न कह कर भारत की लोककथाएं भी कह सकते
हैं। लेखक के अनुसार, ‘‘इस संग्रह की कथाएं किसी समाज
विशेष का प्रतिबिम्ब नहीं हैं बल्कि पूरे जनपद, पूरे राज्य या
पूरे मुल्क के किसी भी कोने की कथा हो सकती है।’’
जिन्होंने पहाड़ों और गांवों में जीवन का
अधिकांश हिस्सा बिताया, उन्होंने इस संग्रह में संकलित कुछ
किस्से-ंकहानियों को हो सकता है पहले भी सुना हो या
पूर्व प्रकाशित संकलनो में पढ़ा हो। संग्रह में संकलित कतिपय
कहानियां मैंने पहले भी सुनी-ंपढ़ी थी तो कतिपय मेरे लिए
एकदम नयी थी। असल में लोकसाहित्य की अधिकांश विधाएं समाज
में एकाधिक रूपों में प्रचलित रहती हैं। लोककथाओं के
मामले में यह अधिक है। एक ही कथा के कई वर्जन प्रचलित
रहते हैं। जितनी बार आप पढॉेंगे- सुनेंगे उतनी ही बार
आपको एक नए रूप से परिचित होने का मौका मिलेगा।
अपने सधे हुए लेखन से इन लोककथाओं को लेखक ने
पठनीय बनाया है। शूरवीर रावत निरन्तर रचना करने वाले लेखक
हैं। पूर्व में वे बारामासा पत्रिका निकालते रहे। यात्राओं पर
केंद्रित उनकी पहली पुस्तक ‘आवारा कदमों की बातें,
कविता संग्रह ‘कितने कितने अतीत’ अपने गांव पर केन्द्रित किताब
‘मेरे गांव के लोग’ और सोशल मीडिया में लिखे गए
उनके लेखों का संकलन ‘चबूतरे से चौराहे तक’ उनके
लेखन की निरन्तरता को बयां कर रहा है। वे फेसबुक और
ब्लाग के माध्यम से भी निरन्तर सक्रिय हैं।
लोककथा संग्रह ‘मेरे मुल्क की लोककथाएं’ के लिए
रावत जी बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक का नाम- मेरे मुल्क की लोककथाएं
प्रकाशक- विनसर पब्लिकेशन कं. देहरादून, उत्तराखण्ड
मूल्य- रू. 195
डॉ. नंद किशोर हटवाल
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