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पढ़िए कैसे उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि हैं लोकोत्सव और मेले – डा. नंदकिशोर हटवाल

पढ़िए कैसे उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि हैं लोकोत्सव और मेले – डा. नंदकिशोर हटवाल

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by November 24, 2019 Culture, Literature

उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि हैं लोकोत्सव और मेले

उत्सव, मेले और त्योहारों का मनुष्य के सामाजिक जीवन में अहम् स्थान होता है। वो किसी भी देश, धर्म, सम्प्रदाय में निवास करता हो लेकिन स्वभावतः मनुष्य उत्सव प्रेमी है। विभिन्न प्रकार के धर्म और सम्प्रदायों में विश्वास करते हुए पूरी दुनियां में मनुष्यों ने हजारों प्रकार के उत्सवों का सृजन किया। कुछ उत्सव खानपान, रहन-सहन के तौर तरीकों के साथ छोटे रूप में पैदा होकर आदमी के विकास के साथ विकसित हुए। कुछ उत्सव किसी घटना विशेष के बाद अस्तित्व में आयें। कुछ उत्सव मनुष्य की खास जरूरतों के कारण समाज द्वारा रचाये गये। कुछ उत्सव मौसम के बदलते रूप-रंग से उत्पन्न खुशी के कारण जीवन्त हुए। दुनिया के लोगों में धर्म, क्षेत्र, जाति, सम्प्रदाय, रंग आदि के हिसाब से जितनी विविधता है उतनी ही विविधता इनके उत्सवों में भी है।

जिन तिथियों को आमोद प्रमोद और हर्षोल्लास व्यक्त किये जाते हैं वे उत्सव कहे जाते हैं। लोकमानस की इच्छा के प्रसार से उत्पन्न हर्ष का उद्रेक (उत्स) ही उत्सव कहलाता है। उत्सवों में मानव समूह का सामुहिक उल्लास निहित होता है। ये उत्सव लोक द्वारा लोक सम्मत विधि-विधान से लोक द्वारा आयोजित होते हैं। यह वैयक्तिक न हो कर सामुहिक होते हैं। इन उत्सवों का उल्लास भी सामुहिक होता है।

साधारण बोलचाल में उत्सव शब्द का प्रयोग किसी अवसर पर सृजित आनन्द, उल्लास अथवा मन को खुशी प्रदान करने वाले वातावरण के लिये किया जाता है। यह अवसर पर्व, त्योहार या मेले का हो, किसी धार्मिक अनुष्ठान, विवाहोत्सव नृत्योत्सव का हो या कोई अन्य हो।

उत्तराखण्ड के उत्सवों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-

1.धार्मिक उत्सव- इनमें उन उत्सवों को सामिल कर सकते हैं जिनमें अनुष्ठानिक पक्ष महत्वपूर्ण होता है। जैसे- पर्व स्नान, नंदा पाती, आठां आदि।

2. राष्ट्रीय उत्सव- जैसे- स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि।

3. पर्वोत्सव- जैसे- दीपावली, होली, उत्तरायण, वसन्त पंचमी आदि।

4. नृत्योत्सव- जैसे- पाण्डव, बगड्वाल नृत्योत्सव।

5. नाट्योत्सव- विभिन्न लोकनाट्यों के आयोजन का उत्सव रम्माण, बुड़देबा।

6. मेलोत्सव- जैसे- मेलों के अवसरों पर आयोजित उत्सव।

7. यात्रा उत्सव- जैसे- राजजात, नंदाष्टमी की यात्राएं, देवयात्राएं।

उत्सवों और मेलों का सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक पक्ष

उत्तराखण्ड के लोग उत्सव प्रेमी हैं, मेले-कोथिगों का शौकीन है। जब कभी अवसर जुड़ता है अवश्य ही उसमें भाग लेता है यहां का लोक। एकांतिक हिमालय में अपनी जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए हिमालय वासी भीड़ के लिये उत्सुक रहता है। अपने जैसे खूब सारे लोग। प्रकृति के बीच रहते-रहते मेले उत्सवों के माध्यम से वो कृतिम दुनिया के आश्चर्य लोक में पहुंचने को उत्सुक रहता है। प्रकृति से ऊबा हुआ पहाड़ी आदमी मेले-उत्सवों में अपने को मानवनिर्मिति के मध्य पाकर आनन्दित हो उठता है। रोजमर्रा की हाड़तोड़ मेहनत से एक-दो दिन के लिये ही सही, मुक्तिदाता के रूप में भी लोकोत्सवों-मेलों की अहमियत है पहाड़ियों के दिलों में। शरीर ही नहीं मन की दुःख विपदाएं और झंझट भी थौल-कौथीगों में कहीं दब, कुचल जाते हैं।

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नाच, गान, खेल, तमाशा, हंसी-खुशी, नये वस्त्र-आभूषण, पकवान, संगी, प्रेमी सभी कुछ तो होता है इन मेलों-उत्सवों में। वर्षों से विछुड़े प्रेमी मिलते हैं। मां-बेटियां मिलती हैं। इसलिये हिमालय की ‘ख्यल्कार’ जनता के लिये बड़ा महत्व है इन लोकोत्सवों का। इसके महत्व को निम्न चार भागों में विभाजित कर समझा जा सकता है-

(अ) सांस्कृतिक महत्व

(ब) सामाजिक महत्व

(स) सामाजिक मनोवैज्ञानिक महत्व

(द) ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्व

(अ) सांस्कृतिक महत्व

सांस्कृतिक प्रसार में उत्सव-मेले सहायक

संस्कृति के विकास में प्रसार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और विभिन्न प्रकार के उत्सव, तीज-त्योहार और मेले सांस्कृतिक प्रसार के प्रबल माध्यम हैं। उत्सव-मेले विभिन्न समूहों को निकट आने के अवसर प्रदान करते हैं। मुंस्यारी का कोई गीत चमोली तक पहुंचता है तो माध्यम यही लोकोत्सव-मेले हैं। वेशभूषा, खानपान, तकनीकी, ज्ञान, आदि सभी के अच्छे प्रसारक के रूप में इन लोकोत्सवों-मेलों का महत्व है।

उत्सव-मेले संस्कृति के निर्माण में सहायक

व्यक्ति तथा समाज को संस्कृति प्रभावित करती है लेकिन ब्यक्ति हर हाल में संस्कृति का दास नहीं होता है बल्कि वह संस्कृति का निर्माता भी होता है, संस्कृति का परिवर्तक होता है। ऐसा करने के लिये उपयुक्त परिस्थितियों की आवश्यक्ता होती है और मेले-उत्सव ऐसी परिस्थितियों को पैदा करते हैं।

व्यक्तित्व के विकास में सहायक

व्यक्तित्व का सम्बन्ध व्यक्ति के उन सभी विचारों, मनोवृत्तियों, मूल्यों, आदतों और व्यहारों से है जो उसकी दैनिक क्रियाओं में स्पष्ट होती है। व्यक्ति अपने और साथियों और सामाजिक अन्तर्कि्रयाओं के माधयम से जिन प्रथाओं, परम्पराओं और कार्य-विधियों को प्राप्त करता है वे उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाते हैं। यह समस्त विशेषतायें संस्कृति की ही विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। किन्हीं भी दो व्यक्तियों का व्यक्तित्व एक-दूसरे के बिल्कुल समान नहीं होता । इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्तित्व के निर्धारण में संस्कृति का प्रभाव सबसे अधिक व्यापक है।

मेले उत्सव समाज और ब्यक्ति को एक विभिन्न प्रकार के अनुभव प्रदान करते हैं। सांस्कृतिक विशेषताओं के आधार पर विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त करके ही व्यक्तित्व का विकास होता है। अपने समुदाय में व्यक्ति को समय-समय पर नवीन परिवर्तन होता देखने को मिलते हैं। इससे उसके अनुभवों और मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है। और इसी के परिणामस्वरूप एक विशेष प्रकार के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

लोक संस्कृति के कतिपय आयामों की अभिव्यक्ति और प्रस्तुति के लिये एकमात्र मंच

लोक उत्सव के अवसर पर समाज के गीत, संगीत, नृत्य, विशिष्ट खानपान, वेशभूषा, रीतिरीवाज, रहन-सहन के दर्शन होते हैं। जनपद के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये लोकोत्सव ही एकमात्र अवसर हैं जब इस धरती के लोकगीत, नृत्य, विशेष खान-पान, वेशभूषा, आभूषण जीवित हो उठते हैं। इनके उपयोग के महज यही अवसर होते हैं लोकोत्सव।

लोक संस्कृति के संरक्षक के रूप में उत्सव-मेले

अगर उत्सव मेले नहीं होते तो कतिपय लोकगीत-नृत्यों का आयोजन न होता और आयोजन न होता तो लोक कलाओं की ये विधायें विस्मृत होकर समाप्त हो जाती । नंदाष्टमी का उत्सव होता है तो नंदा देवी के जागर गाये जाते हैं। इस अवसर पर जागर गायन को आवश्यक माना जाता है। इसलिए जागरों की सुन्दर विधा आज हमारे समाज में जिंदा है। इसी प्रकार चांचड़ी, चौंफला, जैसे गीत नृत्यों का आयोजन ही लोकोत्सवों के अवसर पर होता है। और इनका आयोजन करने का अर्थ है इन गीत नृत्य विधाओं को जीवन देना।

पीढ़ियों को संस्कृति के हस्तान्तरण करने में मददगार

चूंकि लोकोत्सवों के अवसर पर लोक संस्कृति के विविध आयामों के दर्शन मिलते हैं अतः नयी पीढ़ी इन्हें ग्रहण कर पाती है और ये पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हो जाते हैं। जैसे नृत्य, गीत, विशिष्ट पकवाल, वेशभूषा आदि। कतिपय लोककला तो इन्हीं लोकोत्सवों के अवसर पर दिखती हैं और मात्र यही अवसर होता है जब नयी पीढ़ी इसे ग्रहण करती हैं।

(ब) सामाजिक महत्व

मेले-उत्सवों का सामाजिक पक्ष उल्लेखनीय है। मनुष्य की सामाजिक जरूरतें ही उसे मेले उत्सवों की ओर आकर्षित करती हैं। मेले के सामाजिक पक्ष पर निम्न प्रकार से दृष्टिपात किया जा सकता है-

सामाजिक एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण

समाज में उत्सवों के अवसर पर दिखने वाली एकता धीरे-धीर मन के अन्दर तक एकता के बीज का रोपण करती है। एकता के शारीरिक और मानसिक चेहरे लोकोत्सव में स्पष्ट नजर आते हैं। मकर संक्रान्ति के पर्व पर जब लाखों लोग गढ़वाल हिमालय के संगमों में एक साथ डुबकी लगाते हैं अथवा राजजात के अवसर पर जब देश-विदेश के लाखों लोग पिट्ठू लिये एक साथ नंदा के मैत जाते हैं तो लगता है कि पूरा देश एकता के सूत्र में बंधा है।

प्रेरणा एवं लोकोपयोगी कार्यों और आदर्शों के संस्थापक के रूप में

जन्माष्टमी, दीपावली आदि व्रत-त्योहार समाज के सामने लोकादर्शों के याद करने के अवसर देते हैं। टिहरी के थौल या थराली (चमोली) का शहीद भवानी दत्त जोशी की स्मृति में या माधोसिंह भण्डारी की स्मृति में आयोजित मेला या अन्य क्षेत्रों के स्मृति मेले उस महापुरूष तथा उसके कार्यों, आदर्शों को याद करने का एक अवसर होते हैं। समाज इससे प्रेरित होता है। किसी मृतक से जुड़ी दुख की अनुभूति उनके कार्यों, आदर्शों से उत्पन्न यश पर केन्द्रित होकर प्रेरक और सुखात्मक हो जाती हैं। विभिन्न महापुरूषों की जयंतियों के अवसर पर आयोजित लोकोत्सव खासतौर पर समाज को प्रेरणा प्रदान करने वाले होते हैं।

सामूहिकता और एकता की भावना का जागरण करते हैं उत्सव मेले

उत्सवों की पहली शर्त है सामूहिकता। पूजा-पाठ, जप-तप नितांत एकांतिक क्रियाएं हैं। कतिपय त्योहार सिर्फ पारिवारिक होते हैं। लेकिन जो त्योहार लोकोत्सवों का रूप ले लेते हैं उनमें सामुहिकता की भावना बलवती होती हैं। सामुहिकता की भावना के बलवती होने से वैयक्तिकता और स्वार्थपरता हतोत्साहित होती हैं।

लोक कैलेण्डर के रूप में लोकोत्सव

जिस प्रकार किसी शिक्षण संस्थान के लिये वर्ष भर की तिथिवार प्रस्तावित कार्य सूची का कैलेण्डर होता है उसी प्रकार लोकोत्सव लोक का अनछपा कैलेण्डर होता है। लोक का कैलेण्डर लोक में स्वतः स्फूर्त तरीके से संचालित होता है । ये उत्सव और पर्व किसी कार्य को प्रारम्भ या समाप्त करने के दिन के रूप में भी लोक में स्थापित रहते हैं। यद्यपि लोकोत्सवों के उत्पन्न होने का एक आधार मौसम परिवर्तन, फसल चक्र भी था लेकिन कालान्तर में यही लोकोत्सव फसल बोवाई, कटाई को प्रारम्भ करने हेतु समाज को प्रेरित करने, स्मरण दिलाने का कार्य करले लगते हैं। जैसे कतिपय क्षेत्रों में धान बोवाई के लिये प्रथम हलजोत का दिन बसंत पंचमी से होता है।

प्रकृति और पर्यावरण के प्रति प्रेम और सम्मान जागृत करना

नागपंचमी के दिन नाग को दूध पिलाना यद्यपि अंधविश्वास की श्रेणी में आता है तथापि इस पर्व को समाज में नाग के प्रति सम्मान के भाव के जागरण के रूप में भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार दीवाली के अवसर पर गाय-बैलों को पींडा (पौष्टिक आहार) देना, बग्ड्वाल, पाण्डव नृत्योत्सवों में पय्यां, सल्ला के वृक्षों का रोपण, उत्तरायण को कौओं को पकवान खिलाना, विवाह के अवसर पर पंदेरों को पूजना आदि प्रकृति के विभिन्न घटकों के प्रति समाज में भावनात्मक लगाव पैदा करते हैं।

पारिवारिक संबधों को मजबूती देना

लोकोत्सवों के अवसर पर परिवार के सभी सदस्य एकत्र होते हैं तथा उनके बीच स्नेह की भावना बलवती होती है। गढ़वाल में एक नियत तिथि को सर्वत्र होने वाले लोकत्सवों के साथ-साथ ऐसे लोकउत्सवों की भी भरमार है जिन्हैं कि समय-2 पर गांव तथा क्षेत्र विशेष के लोग अनिश्चित समय बाद आयोजित करते रहते हैं। ऐसे लोकोत्सवों में अठ्वाड़, उवेद, बन्याथ, देवयात्रा आदि प्रमुख हैं। जिस गांव में इसका आयोजन होता है वहां के लोग अपने दूर-दूर के रिश्तेदारों को भी आमंत्रित करते हैं। इस प्रकार ये उत्सव नाते-रिश्तेदारों को मिलने का अवसर उपलब्ध कराते हैं। रक्षाबंधन, भैयादूज का त्योहार भाई बहिनों के बीच की प्र्रगाढ़ता को बढ़ाता है।

महिलाओं तथा बेटियों का सम्मान

जिले में उत्सवों में ‘धयाणी’ के रूप में ब्याही बेटियों को सम्मान देने की बेहद भावनात्मक प्रथा है। नंदा की वार्षिक जात तथा राजजात तो ‘धयाणीयों’ का ही उत्सव है। इसके अलावा लगभग धयाणियों (ब्याही बेटियों) को मायके बुलाकर उन्हें सम्मान देने का रिवाज है। बन्याथ के उत्सव में एक दिन ‘धयाणी भातु ’ लगता है। इसमें मायके आमंत्रित की गई बेटियों को भोज दिया जाता है। इसी प्रकार विभिन्न त्योहारों पर धयाणियों को ‘पैणा’ देने का रिवाज है। ये परम्पराएं समाज में बेटियों के प्रति भावनात्मक लगाव उत्पन्न करती हैं।

(द) ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्व

उत्सव मेलों में इतिहास बोलता है। अतीत दिखता है। समाज, संस्कृति, और सभ्यता की विकास यात्रा की झलक नजर आती है। इन विकास यात्राओं के विविध पड़ावों का संज्ञान मिलता है। आदमी के अंदर इतिहास बोध जागृत होता है। इससे समाज को प्रेरणा मिलती है और यह अच्छी प्रवृत्तियों के विकास में सहायक होता है।

यद्यपि यह आवश्यकता नहीं कि किसी उत्सव के बारे में प्रचलित मान्यता या जनविश्वास वास्तव में प्रमाणिक इतिहास हो। लेकिन उन प्रचलित जनविश्वासों और मान्यताओं में इतिहास के सूत्र अवश्य ढूंढे जा सकते हैं। अगर ये सूत्र इतिहास और पुरातत्व से कहीं जाकर जुड़ते हों तो यह इतिहास के लिये एक प्रामाणिक आधार का काम करते हैं। उदाहरण के लिए जीतू बग्ड्वाल का नृत्योत्सव आयोजन की गढ़वाल में परम्परा है। लोक प्रचलित जीतू की गाथा को आधार मान कर यह नृत्योत्सव आयोजित होते हैं। जीतू के चरित्र पर आधारित सम्पूर्ण नृत्योत्सव ऐतिहासिक सच हो न हो लेकिन महीपत शाह के दरबार में जीतू बग्ड़वाल नाम का भड़ था और इस ऐतिहासिक सच को प्रमाणिकता प्रदान करता है गढ़वाल में प्रचलित जीतू बगड्वाल की गाथा पर आधारित नृत्योत्सव । इसी प्रकार रूवकुण्ड में पाये जाने वाले नरकंकालों को राजजात उत्सव से प्राप्त सूत्र के आधार पर विवचेना की गई तो ऐतिहासिक गुत्थी सुलझाने में मदद मिली।


इसी प्रकार नागर्जा, गोरिल, माधोसिंह भण्डारी से संबधित लाकोत्सव कहीं न कहीं इतिहास की ओर दृष्टि डालने के लिये प्रेरित करते हैं या समाज को अपने कार्यों से प्रेरणा प्रदान करते हैं। लाता से सलूड़ जाने वाला राणी देवोरा के उत्सव के पीछे कोई न कोई ऐतिहासिक सच होगा ऐसा कहा जा सकता है। इसी प्रकार चमोली जिले के आदिबदरी में लगने वाला नोठा कौथीग भी किसी ऐतिहासिक संघर्ष की ओर संकेत करता है। इस कौथीग में कभी लाठियों से खूनी संघर्ष होता था। लेकिन अब यह संघर्ष सिर्फ प्रतीकात्मक होता है। इस कौथीग में गाये जाने वाले गीतों में कुमामेर का जिक्र किसी कुमामेर नाम के तिब्बती डाकू की ओर संकेत करता है। 15 वीं शताब्दी में आदिबदरी मंदिर के नजदीक स्थित चांदपुर गढ़ पर पंवार वंशी शासकों का शासन था । सम्भावना जतायी जाती है कि इस लुटेरे सरदार कुमामेर ने कभी राजधानी तक आने का दुस्साहस किया हो। इसी प्रकार उत्तरकाशी का बिशु मेला भी किसी ऐतिहासिक युद्ध या युद्ध प्रशिक्षण और युद्धकला के उत्सव के रूप में दर्शन कराता है। इसी प्रकार बूंखल कौथीग के पीछे प्रचलित किंवदंती के पीछे हो सकता है कोई ऐतिहासिक सच्चाई रही हो जिसका वास्तविक रूप दंतकथा का जामा पहन कर हमारे सामने इस रूप में है कि कंडारस्यूं पट्टी के सिया लोहार की कन्या को ‘ग्वेर छोरों’ (ग्वालों) ने एक खड्ड में दबा दिया था बाद में यही कन्या काली के रूप में प्रकट हुई जिसकी पूजा हेतु यह उत्सव आयोजित होता है।

इस प्रकार उत्सव मेले राजनैतिक और समाज के इतिहास के कई अनसुलझे रहस्य अपने आप में समेटे हुये रहते हैं। ये लोक शैली में कथाओं का रूप धर कर उत्सवों के अवसर याद किये जाते हैं और पीढ़ियों को हस्तांतरित होते हैं।

मेले-उत्सवों की सीमाएं और चुनौतियां

उत्सव मेले जहां मानव सभ्यता और संस्कृति के संवाहक रहे हैं वहीं आज के दौर में कतिपय सीमाएं, चुनौतियां और मुश्किलें भी इन आयोजनों को लेकर हैं।

अंधविश्वासों, कुप्रथाओं और रूढ़ियों से मुक्ति की चुनौती

कतिपय लोक उत्सवों में अंधविश्वासों का पोषण देखने को मिलता है। ऐसे विश्वास जो आज के दौर में अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसी प्रथाएं जो समाज के लिये घातक हैं। अठ्वाड़ और नंदा संबंधीत उत्सवों के अवसर पर भैंसे के बलि देना, चौसठ्या उत्सव में चौसठ बलियां, उबेद-उखेल के अवसर पर सूवर को गांव के चारों ओर घुमा कर उसकी बलि देना, ये सब कुप्रथाएं घातक हैं। इसी प्रकार कतिपय लोकोत्सवों में मुट्ठीभर लोग इनके अच्छे पक्षों को दरकिनार कर जाति प्रथा तथा छुआछूत की घातक रूढ़ियां को बढ़ावा देने का प्रयत्न कर अपने जातिगत वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों को दूसरे समूहों को हीन देखकर गहरा संतोष प्राप्त होता है। कई बार इस प्रकार के विचारों का वर्चस्व इतना अधिक हो जाता है। कि उत्सव का वास्तविक- मानवीय और उपयोगी पक्ष क्षीण होने लगता है। जैसे कि राजजात यात्रा उत्सव को सिर्फ बाराथानी ब्राह्मणों और पंवार वंशी राजाओं तक सीमित करने का प्रयास करना या दलितों और महिलाओं के लिये होमकुण्ड क्षेत्र को वर्जित बताने की तथ्यहीन बातों को तूल देना इस भव्य उत्सव को क्षय रोग से ग्रस्त करने के समान है। साथ ही इसके उपयोगी और ‘धयाणी यात्रा’ जैसे मानवीय पहलू के महत्व पर पर्दा डालना है। इसके व्यापक पहलू को संकीर्ण करना है।

इस प्रकार की प्रवृत्तियां को हतोत्साहित करना, कमजोर करना आज के समय की एक बड़ी जरूरत है। यह इन उत्सवों को समसामयिक, उपयोगी और प्रासंगिक बनाने के लिए भी आवश्यक है। यद्यपि ये सब संस्कृति का एक अंग है, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिये कि संस्कृति में समय की मांग के अनुसार परिवर्तित होने का गुण भी होता है। इन उत्सवों को आज हम जिस रूप में देख रहे हैं 200 साल पहले यह ठीक ऐसे ही नहीं थे और न 100 साल पहले ठीक वैसे थे जैसे 200 साल पहले थे । उत्सव परम्पराएं भी लगातार परिवर्तन के दौर से गुजरती हैं। मनुष्य उन्हें अपनी जरूरतों के हिसाब से अनुकूलित करता रहता है। भूगोल और समय का इस अनुकूलन पर बड़ा प्रभाव होता है। इससे किसी तरह के अनिष्ट होने की भ्रांति फैलाना मजाक है। नौठा कौथीग के अवसर पर होने वाले खूनी संघर्ष के गवाह बुजुर्ग आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं लेकिन वर्तमान में इस खूनी संघर्ष में ‘संघर्ष का खेल’ या कहें संघर्ष का उत्सव रूप या नाट्य रूप धारण का अपनी सामयिकता और आधुनिक संदर्भों में भी अपनी उपयोगिता बरकरार रखी है।

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थल नदी और डाडामण्डी में होने वाले गिंदी मेले में पहले स्थानीय मौनी देवी के मंदिर में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर कई जोड़े परिणय सूत्र में बंधते थे। विवाह की रस्म के रूप में वर द्वारा वधू को नथ पहनायी जाती थी। शेष विवाहोत्सव घर में होता था। एक बार सबसे पहले नथ पहनने वाली दुल्हन विधवा हो गयी जिससे यह भ्रम फैल गया कि मौनी देवी के मंदिर में जिस दुल्हन को प्रथम नथ पहनाई जायेगी वो विधवा हो जायेगी। इसके बाद मंदिर में एक गणिका को रख दिया गया जिसे प्रथम नथ पहनायी जाने लगी । बाद में समाज के चेतनाशील लोगों द्वारा इस रूढ़िवादी परम्परा को बंद कर दिया गया । इससे इसका उत्सव और खेल रूप उभर कर आज समाज के सामने है।

कौन नहीं जानता कि चंद्रबदनी(टिहरी) के मंदिर में पहले एक ही दिन में सैकड़ों भैंसां की बलि दी जाती थी आज स्वामी मन्मथन के प्रयासें से बलि बंद हो चुकी है। राजजात में आज देवी का संदेशवाहक चौसिंग्या खाडू बहुत पहले देवी को बलि हेतु चढ़ावा था लेकिन आज उसने मानवीय पहलू को छूने वाले विशिष्ट चरित्र ‘देवी का संदेशवाहक’ या धयाणी को ‘साग-समोण पहुंचाने वाले का रूप धारण कर लिया है।

इस प्रकार हमारे उत्सव मेलों ने समय के साथ नये रूप धारण किये हैं। ऐसा दुनिया की सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों के साथ हुआ है। निश्चित ही इन उत्सव-मेलों को नवीनता देने में समाज के चेतनाशील बुद्धिजीवीयों का हाथ रहा है। और आज भी कई उत्सव परम्पराएं पुरानी घातक रूढ़ियों के बंधन से मुक्ति का इंतजार कर रही हैं।

जातिगत भेदभाव, छुआछूत की समस्या

जातिभेद का सर्वाधिक कुरूप चेहरा सार्वजनिक उत्सवों में ही देखने को मिलता है। सार्वजनिक रूप से अपने को ऊंचा और श्रेष्ठ साबित करने की मानव प्रवृत्ति इन उत्सवों में जाति की बैसाखी के साथ दृष्टिगत होती है। इनको समाप्त कर इसके स्थान पर नैतिकता, कर्मठता, ईमानदारी, समाजसेवा, पढ़ाई, विज्ञान, खेल आदि आधुनिक जीवन के विविध उपयोगी पहलुओं को श्रेष्ठता के मानक के रूप में समाज में स्थापित करना आवश्यक है।

अंधविश्वासों, रूढ़ियों और अवैज्ञानिक धारणाओं को पीढ़ियों को हस्तांतरण का माध्यम भी बनते हैं उत्सव-मेले

जहां ये उत्सव नयी पीढ़ी को सांस्कृतिक परम्पराओं, लोककलाओं और शिल्प का हस्तांतरण करती हैं वहीं इन्हीं के साथ कुछ अन्धविश्वास, रूढ़ियां और अवैज्ञानिक अवधारणाएं भी नयी पढ़ी को हस्तांतरित हो जाती हैं। इन्हें पहचान कर, रोक कर, कम कर, उत्सवों-मेलों की श्रेष्ठता को बनाये रखा जा सकता है।

खर्चीलापन

कभी-कभी कुछ लोकोत्सव आम लोगों तथा गरीब तबके के लिये खर्चीले तथा अमीरों के लिये दौलत के प्रर्दशन का माधयम होते हैं। गांव क्षेत्र के कई अनुष्ठानिक उत्सवों में कभी-कभी ‘फांट’ की रकम इतनी ज्यादा होती है कि गरीब तबका इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। गांव के गरीबों को इसमें छूट देकर लोकोत्सवों में गरीब वर्ग को आर्थिक दबाव से मुक्त रखा जा सकता है।

शराब और नशाखोरी

उत्तराखण्ड के उत्सवों और मेलों में शराब और नशाखोरी एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित रहती हैं। धार्मिक, सामाजिक, अनुष्ठानिक हर प्रकार के उत्सव मेलों में शराब पीकर हुडदंग करते लोग भी अवश्य नजर आ जाते हैं। इस प्रकार की हरकतें आम जन के मन में इन आयोजनों से विमोह पैदा करती हैं। कुरूपता और विकृति पहले दिखती है अच्छा पहलू बाद में। खामियां जल्दी नजर आती हैं खूबियां देर से । विकृतियां खुद अपना प्रचार करती हैं, खुद लोगों का धयान अपनी ओर आकर्षित करती हैं और खुद-ब-खुद, लोगों के न चाहते हुये भी उनके सामने उपस्थित हो जाती हैं। लेकिन अच्छे पहलू को ढूंढना पड़ता है, महसूस करना होता है, महीनता से अवलोकन करना होता है। विकृतियां में लैण्टाना और गाजर घास की तरह बेतरतीब, बिना बोये फैलने की प्रवृत्ति होती है तो मानवीय पहलुओं और मूल्यों को बड़ी कोमलता, संवेदनशीलता और ममता के साथ पालने-पोसने की आवश्यकता होती है। इसलिये उत्सवों के मानवीय, समरसतापूर्ण और उपयोगी पहलुओं को विचारपूर्वक, योजनाबद्ध तरीके से कमियों, विकृतियों पर नियंत्रण के प्रयास होने चाहिये।

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उत्सव-मेलों के इन तमाम चुनौतियों सीमाओं के बावजूद आज के समय में इनके महत्व को कम कर नहीं आंका जा सकता है। मेले-उत्सव मानव सभ्यता और संस्कृति के देन है। यदि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में मेले-उत्सवों को ढाला जाय तो यह समाज के लिये और अधिक लाभकारी साबित हो सकते हैं। हमारे सामाजिक और आर्थिक विकास के लिये मेले उत्सव एक कच्चे माल के रूप में या प्राकृतिक संसाधन के रूप में हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इनका कैसे इस्तेमाल करते हैं। थोड़े से प्रयासों से इन्हें सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये लाभकारी बनाया जा सकता है लेकिन यथास्थिति रखी जाय तो इनसे लाभ के बजाय हानि भी हो सकती है।


डॉ0 नंद किशोर हटवाल

एच-323 नेहरू कालोनी, देहरादून, उत्तराखण्ड

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