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ईगास 2020 : बूढ़ी दीपावली (बग्वाल) और भैलो का खेल, पढ़िए उत्तराखंड की इस अद्वितीय संस्कृति के बारे में

ईगास 2020 : बूढ़ी दीपावली (बग्वाल) और भैलो का खेल, पढ़िए उत्तराखंड की इस अद्वितीय संस्कृति के बारे में

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by November 25, 2020 Culture

उत्तराखंड, एक ऐसा प्रदेश जहां की संस्कृति कई रंगों से भरी हुई है। जहां की बोली में एक मिठास है। जहां हर त्योहार को अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। इगास-बग्वाल यानी दीपावली भी एक ऐसा ही त्योहार है जो उत्तराखंड की परंपराओं को जीवंत कर देता है। पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद ईगास मनाने की परंपरा है। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को ईगास-बग्वाल नाम दिया गया। गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में ये पर्व ज्यादा देखने को मिलता है। इस बार ये पर्व आज यानि 25 नवंबर को मनाया जा रहा है।

सुबह से लेकर दोपहर तक होती है गोवंश की पूजा
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार हरिबोधनी एकादशी यानी ईगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। देखा जाए तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया। इसे ही ईगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवे आदि से आहार तैयार किया जाता है। जिसे परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं। बग्वाल और ईगास को घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती।

भैलो खेल होता है मुख्य आकर्षण का केंद्र
ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। रस्सी में चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठ बांधी जाती है। जिसके बाद गांव के ऊंचे स्थान पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि देती है। भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है।

क्यों मनाई जाती है इगास बग्वाल
इसके बारे में कई लोकविश्वास, मान्यताएं, किंवदंतिया प्रचलित है. एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी. इसलिए यहां पर ग्यारह दिन बाद यह दीवाली मनाई जाती है. रिख बग्वाल मनाए जाने के पीछे भी एक विश्वास यह भी प्रचलित है कि उन इलाकों में राम के अयोध्या लौटने की सूचना एक महीने बाद मिली थी. दूसरी मान्यता के अनुसार दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी. युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी। रिख बग्वाल के बारे में भी यही कहा जाता है कि सेना एक महीने बाद पहुंची और तब बग्वाल मनाई गई और इसके बाद यह परम्परा ही चल पड़ी. ऐसा भी कहा जाता है कि बड़ी दीवाली के अवसर पर किसी क्षेत्र का कोई व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया लेकिन उस दिन वापस नहीं आया इसलिए ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई. ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो तब दीपावली मनाई और भैला खेला।
हिंदू परम्पराओं और विश्वासों की बात करें तो इगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है. इसे ग्यारस का त्यौहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं. पौराणिक कथा है कि शंखासुर नाम का एक राक्षस था. उसका तीनो लोकों में आतंक था. देवतागण उसके भय से विष्णु के पास गए और राक्षस से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना की. विष्णु ने शंखासुर से युद्ध किया. युद्ध बड़े लम्बे समय तक चला. अंत में भगवान विष्णु ने शंखासुर को मार डाला. इस लम्बे युद्ध के बाद भगवान विष्णु काफी थक गए थे. क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे. देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की. इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया।   

बर्त परम्परा : बग्वाल के अवसर पर गढ़वाल में बर्त खींचने की परम्परा भी है. इगास बग्वाल के अवसर पर भी बर्त खींचा जाता है. बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी. यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है. लोकपरम्पराओं को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए उन्हें वैदिक-पौराणिक आख्यानों से जोड़ने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है. बर्त खींचने को भी समुद्र मंथन की क्रिया और बर्त को बासुकि नाग से जोड़ा जाता है.

भैलो खेलने का रिवाज : इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है. यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है. यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है. इसे दली या छिल्ला कहा जाता है. जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं. इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है. फिर इसे जला कर घुमाते हैं. इसे ही भैला खेलना कहा जाता है. परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं. जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं।

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