कहानी कुछ खंडहरों की , उत्तराखंड के वीरान होते गांव और घरों की तस्वीरें
वीरान होते उत्तराखंड के गांव
अपनी खूबसूरत पर्वतीय श्रृंखला असीम सुंदरता और संस्कृति के लिए पहचाने जाने वाला राज्य अपने गठन के मूल उद्देश्यों से भटक गया है… राज्य बनने से पहले जिन गांवों में चहल-पहल हुआ करती थी वो आज वीरान और सुनसान हैं। आज करीब 968 गांव भूतिया घोषित हो चुके हैं…3900 गांव ऐसे हैं जिनकी आबादी 50% से भी कम हो चुकी है।
शिक्षा, सड़क…स्वास्थय रोज़गार और तमाम मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आज तमाम घरों में ताले लटक रहे हैं। साल 2000 में उत्तराखंड का अलग राज्य के रूप में गठन हुआ और बीते 18 सालों में इस प्रदेश ने करीब 8 मुख्यमंत्री देख लिये लेकिन अगर कुछ नहीं थमा तो वो है पलायन।
राज्य के करीब 2.85 लाख घरों में ताले लटक रहे हैं और 3000 से अधिक गांव में जनजीवन की सिर्फ स्मृतियां ही शेष है…वीरान होते इन गांव में खेती किसानी करने वाला भी कोई नहीं बचा नतीजतन करीब 1 लाख हेक्टेयर भूमि बंजर हो चूकी है। पिछले एक दशक में अल्मोड़ा और पौड़ी की जनसंख्या घटने की दर चौंकाने वाली है..पौड़ी ज़िले में 370 और अल्मोड़ा में 256 गांव पूरी तरह खाली हो चुके है।.वहीं चंपावत ज़िले के 37 गांवों में कोई युवा वोटर ही नहीं बचा।
पलायन जैसी गंभीर समस्या को रोकने का फॉर्मूला ना तो राजनीतिक पार्टियों के पास ना ही इसमें उनकी कोई रूचि लेकिन आने वाले समय में अगर हालात नहीं सुधरे तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं। यहां के निवासियों को उम्मीद थी कि अलग राज्य बनने के कुछ सालों बाद यहां की दिशा और दशा बदलेगी लेकिन हालात जस के जस रहे और मूलभूत सुविधाओं की कमी में यहां के लोग अपने गांव की मिट्टी से दूर होते चले गये…और जो यहां से एक बार गया उसने फिर पलट कर यहां नहीं देखा।
पलायन की सबसे प्रमुख वजह है आजीवका की कमी…..सरकार और स्वंय सेवी संस्थाओं को चाहिये कि पर्वतीय इलाकों में लोगों की सस्याओं को ना सिर्फ समझें बल्कि उनके लिए आजीविका के साघन भी तलाशें …पहाड़ों से पलायन रोकने का यही एक तरीका है।गांव में बचे बूढ़े बुर्जुगों के भावनात्मक लगाव ने उन्हें अपनी मिट्टी से जोड़ कर रखा है…गोधूली बेला में घर की छतों पर ना जाने कितनी बूढ़ी बेजान आंखें अपनों के लौटने के इंतज़ार में हैं।
Rajeev, Mirror Haldwani