पहाड़ में रेल दशकों से एक सपना, पढ़िए इस पर पहाड़ के युवा इंजीनियर के विचार
भारत से अंग्रेजों के जाने के साथ ही कुछ चीजें अधूरी छूट गई थीं जो आजादी के 71 साल बाद भी पूरी नहीं हो सकी हैं।पहाड़ में रेल चलाने का जो काम अंग्रेज कर गए थे, स्वतंत्र भारत की सरकारें उसे बहुत आगे नहीं बढ़ा पाई हैं। परिणाम यह कि आज भी लोग विकास केलिए यातायात के सुगम और सस्ते साधन की आस करते करते पहाड़ छोड़ कहीं सुविधाजनक जगह जाने को विवश हैं।
पहाड़ का कठिन भूगोल लंबी सड़क यात्राओं को बेहद तकलीफदेह बना देता है। नतीजतन सड़कें बन जाने के बावजूद ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में विकास की गाड़ी एक स्तर से आगे नहीं बढ़ पाई है। अंग्रेजी राज में उत्तराखंड के जो हिस्से आवागमन केलिहाज से बेहतर स्थिति में थे, वहाँ विकास की किरणें पहले पहुँचीं, मगर दुर्गम इलाकों के बाशिंदे पीछे रह गए।
वर्तमान में उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डल के काठगोदाम, रामनगर और टनकपुर और गढ़वाल मण्डल के कोटद्वार और ऋषिकेश तक ही रेलमार्ग पहुंचे हैं। यह सभी स्टेशन मैदानी इलाकों के अन्तिम छोर पर हैं, अर्थात पहाड़ों में एक किलोमीटर का भी रेलमार्ग नही है।आश्चर्यजनक बात यह है कि इन स्थानों तक भी रेलमार्गों का निर्माण आज से लगभग 70-80 साल पहले ब्रिटिश शासन काल में ही हो चुका था। स्वतन्त्र भारत में उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में रेल पहुंचाने की कोशिश के अन्तर्गत एक मीटर भी रेल लाइन नहीं बिछ पाई। टनकपुर बागेश्वर रेललाइन का सर्वे सन् 1912 में ही हो चुका था। पुन: सन् 2006 में इस मार्ग का सर्वे करवाया गया है। वर्ष 1960-70 के दशक में पद्मश्री देवकी नंदन पांडे ने पहाड़ों में रेलमार्ग बनाये जाने की मांग पहली बार उठाई थी, उसके बाद अब कई संघर्षसमितियां इस मुद्दे पर सड़क से लेकर संसद तक, हर मंच पर पहाड़ की इस मांग को उठा चुकी हैं, लेकिन कोरे आश्वासनों के सिवा कुछ हाथ में नहीं आया है। बागेश्वर-टनकपुर रेलमार्ग संघर्ष समिति के सदस्य जन्तर-मन्तर में दो बार आमरण अनशन कर चुके हैं।
देश के पहाड़ी इलाकों में रेलगाड़ी ले जाने का विचार कोई नया नहीं है। शिमला और दार्जिलिंग में रेल अंग्रेजी शासन में ही आ चुकी थी। हालांकि यह पर्यटन के लिहाज से बनी खिलौना गाड़ी भर हैं। बावजूद इन शुरुआती कोशिशों के, पहाड़ में रेलगाड़ी ले जाने के विचार कोखास प्रोत्साहन नहीं मिला। रेलगाड़ी को मैदानों की चीज समझा जाता रहा और इसे दुर्गम पहाड़ों तक लाने की बात को खास तवज्जो नहीं दी गई। टेक्नोलॉजी की अनुपलब्धता भी इसे लगभग असंभव कार्य बना देती थी। लोग सोचते थे यहाँ मोटर गाड़ी ठीक से पहुँच जाए, वहीगनीमत है।
लेकिन तकनीकी छलांग का कमाल देखिए, देखते ही देखते देश-दुनिया के कई पहाड़ी इलाकों में रेलगाड़ी की सीटियाँ गूँजने लगीं। चीन ने तो हिमालय जितनी ऊँची कुनलुन पर्वतमाला को लांघकर तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक रेल पहुँचा दी। वह भी रिकार्ड समय में। और अबचीनी रेल भारत की पूर्वोत्तर सीमा और नेपाल की राजधानी काठमांडू में दस्तक देने की तैयारी कर रही है। कहना न होगा रेल ने तिब्बत का कायापलट कर दिया है और वैश्विक मंदी के मौजूदा दौर में भी इस क्षेत्र की विकास दर दो अंकों में बनी हुई है। अपने देश में भी कई पहाड़ीइलाके बीते कुछ वर्षों के दौरान रेल की छुक-छुक से गुलजार हुए। महाराष्ट्र कोंकण रेलवे का बड़ा हिस्सा पहाड़ी इलाकों से गुजरता है। और अब तो हिमालय के ही एक पहलू कश्मीर घाटी में रेलगाड़ी दौड़ने लगी है। जल्द ही देश की राजधानी दिल्ली से धरती के स्वर्ग तक सीधेरेलगाड़ी से सफर संभव होगा !
आज की तकनीकी उपलब्धियों को देखते हुए अब पहाड़ी मार्गों पर रेल बिछाना बहुत मुश्किल काम नहीं रहा। दिल्ली में घनी बस्तियों के बीच जिस तरह पिलर खड़ेकर मेट्रो रेल बिछाई गई है, ठीक इसी तरह उत्तराखंड में नदियों के किनारे पिलरों पर रेल लाइन बिछाई जा सकती है। न सड़क खोदने का झंझट और न पहाड़ खिसकने का खतरा। जहाँ कहीं नदियों में तीखे मोड़ हों वहां छोटी-छोटी सुरंगें बनाई जा सकती हैं। कोंकण रेलवे के लिए देश के इंजीनियर यह काम पहले ही कर चुके हैं। रेलमार्ग बनने पर पहाड़ी जिलों में उद्योग धंधों व पर्यटन के विकास से भारी संख्या में रोजगार के साधन पैदा होने की आशा की जाती रही है। एक तरफ़ जब भारत के मुख्य शहरों में लोग मेट्रो रेल में सफर कर रहे हैं और रेलमन्त्री देश में बुलेट ट्रैन चलाने की बात कह रहे हैं वहीं उत्तराखंड के लोगों के लिये रेल से अपने क्षेत्रों में पहुंचना एक सपना ही रह गया है। एक ऐसा सपना जो लगभग 100 साल पहले अंग्रेजों ने पहाड़ को दिखाया था।
नीतीश जोशी, टेलीकॉम इंजीनियर
बागेश्वर, उत्तराखंड
( हमसे जुड़ने के लिए CLICK करें)
( Click here for latest news update)
( हमें अपने आर्टिकल और विचार भेजें mirroruttarakhand@gmail.com पर )