उत्तराखंड में पलायन को एक बड़ा संकट बताते हुए उसके समाधान भी बता रहे हैं धर्मेन्द्र आर्या
उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन आज एक बड़ा और विकराल समस्या का रूप धारण कर चुका है। इस समस्या से निपटने के लिए यदि तुरंत कोई उपाय नहीं किए गए तो हिमालयीय लोक संस्कृति पर भी बहुत बड़ा खतरा मंडरा सकता है। उत्तराखंड में कोई भी सरकार और राजनैतिक दल इससे निपटने के लिए ठोस उपाय नहीं कर पायी है। अब यह पलायन का मुद्दा महज एक राजनैतिक मुद्दा नहीं रह गया है बल्कि सामाजिक जन जागरण, मानवाधिकार के मूल्यों की रक्षा और अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने के संकट से जुड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से चाहे स्थानीय पहाड़वासी हों या दूरदराज इलाकों में रहने वाले प्रवासी जन पलायन के अभिशाप की पीड़ा झेलने के लिए विवश हैं। सरकार और उत्तराखंड की विपक्षी पार्टियां इस पलायन और विस्थापन पर मौन साधे हुए हैं किन्तु सोशल मीडिया के जागरूक नागरिकों और सामाजिक संस्थाओं की ओर से इस समस्या पर गहन चिंता प्रकट की जा रही है।
गौरतलब है कि नए राज्य की संकल्पना उत्तराखंड राज्य के चिर प्रतीक्षित लोक कल्याणकारी सपनों को पूरा करने और पलायन को रोकने के मकसद से हुई थी, न कि इसे और विकराल रूप देकर यहां से आम जनता को भगाने के लिए। आज हमारे राजनेताओं ने उत्तराखंड के राज्य प्रशासन को लूट खसोट मचाने वाले संगठित माफियों के हाथों लगभग गिरवी रख दिया है। यही कारण है कि अब यह पलायन का मुद्दा महज एक राजनैतिक मुद्दा नहीं रह गया है बल्कि सामाजिक जन जागरण, मानवाधिकार के मूल्यों की रक्षा और अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने के संकट से जुड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से चाहे स्थानीय पहाड़वासी हों या दूरदराज इलाकों में रहने वाले प्रवासी जन पलायन के अभिशाप की पीड़ा झेलने के लिए विवश हैं।
उत्तराखंड में पलायन कैसे रुके ? इसके कारणों, मूल समस्याओं और निदान–समाधान को लेकर आजकल सोशल मीडिया में एक जोरदार बहस छिड़ी हुई है। सवाल यह भी उठाए जा रहे हैं कि इस भारी संख्या में हो रहे पलायन के लिए कौन जिम्मेदार है ? उत्तराखंड सरकार के अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग द्वारा हाल ही में जारी सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जब से नए राज्य का गठन हुआ है तब से लेकर उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले लग चुके हैं।
पहाड़ी जीवन को गति देने के लिए, उसमें नई ऊर्जा भरने के लिए और गांवों को फिर से आबाद करने के लिए होना तो ये चाहिए था कि सरकारें बहुत आपात स्तर पर इस पलायन को रोकती। दुर्गम इलाकों को तमाम बुनियादी सुविधाओं से लैस कर कुछ तो सुगम बनाती। खेत हैं लेकिन बीज नहीं, हल, बैल, पशुधन सब गायब, स्कूल हैं तो भवन नहीं, भवन हैं तो टीचर कम, पाइपलाइनें हैं तो पानी कम, बिजली के खंभे हैं तो बिजली नहीं, अस्पताल हैं तो दवाएं उपकरण और डॉक्टरों की कमी, ये किल्लत भी जैसे पहाड़ की नियति बन गई है। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में पलायन इन 16 वर्षों की ही समस्या है। काफी पहले से लोग रोजी-रोटी के लिए मैदानों का रुख करते रहे हैं। एक लाख सर्विस मतदाता इस राज्य में है। यानी जो सेना, अर्धसैनिक बल आदि में कार्यरत है। ये परंपरा बहुत पहले से रही है, लेकिन अगर वे इतने बड़े पैमाने पर गांवों के परिदृश्य से गायब हुए हैं, तो ये सोचने वाली बात है कि क्या वे सभी उस सुंदर बेहतर जीवन को हासिल कर पाएं होंगे जिसकी कामना में वे अपने घरों से मैदानों की ओर निकले होंगे। इस मूवमेंट का, उसके नतीजों का अध्ययन किया जाना जरूरी है।
उत्तराखंड के पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश का उदाहरण हमारे सामने है। उसने उन्हीं चीजों में अपनी पहचान और समृद्धि का निर्माण किया है जिनका संबंध विशुद्ध पर्वतीयता से है। जैसे कृषि, बागवानी, पनबिजली, पर्यटन, कला आदि। उत्तराखंड में क्या ये संभव नहीं हो सकता था? आज अगर बूढ़े अकेले छूट गए हैं या गांव भुतहा हो चले हैं तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आती है. क्या उन जगहों को छोड़ कर जाने वालों पर या उन लोगों पर जो इस भूगोल के शासकीय नियंता और नीति निर्धारक चुने गए हैं। महात्मा गांधी ने कहा था, भारत की आत्मा गांवों में बसती है। लेकिन जब गांव ही नहीं रहेंगे तो ये आत्मा बियाबान में ही भटकेगी।
उत्तराखंड में पलायन की समस्या और समाधान
उत्तराखंड में पलायन का बड़ा कारण सुदूर क्षेत्रों में समर्थ-संवेदनशील शिक्षा, चिकित्सा, और रोज़गार का न होना है। स्कूल व प्राथमिकता चिकित्सा केन्द्र तो हैं, लेकिन उनमें डॉक्टर व मास्टर नहीं हैं। रोज़गार की योजनाएं हैं, लेकिन क्रियान्वयन नहीं है। इन समस्याओं का समाधान पलायन नहीं, सुदूर क्षेत्रों में सस्ती शिक्षा, सस्ती चिकित्सा और रोज़गार के सक्षम व जवाबदेह तंत्र का विकास है। शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक हैं। इनकी पूर्ति होनी ही चाहिए। समस्या के मूल में समाधान स्वतः निहित होता है। पलायन कि समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि रोज़गार का विकास स्थानीय स्तर पर हो। उत्तराखंड में प्राथमिकता के तौर पर फल, फूल, औषधि व जैविक खेती-बागवानी पट्टियों के विकास की योजनाओं को लागू किया जाए। विकेन्द्रित स्तर पर खेती, बागवानी, वनोपज, जैव तकनीकी, खाद्य प्रसंस्करण संबंधी उच्च शिक्षा, शोध, कौशल उन्नयन तथा उत्पादन इकाइयों की स्थापना की जाए। सभी चिन्हित जैव संपदा उत्पादों के स्थानीय ग्रामसभा द्वारा पेटेंट कराने व अधिकतम मूल्य में बिक्री करने के लिए स्थानीय समुदाय को प्रशिक्षित व सक्षम बनाने की ज़िम्मेदारी सरकार खुद ले। जैवसंपदा उत्पादों के न्यूनतम बिक्री मूल्य का निर्धारण सरकार द्वारा हो।
उचित पैकेजिंग, संरक्षण तथा विपणन व्यवस्था के अभाव में उत्पादनोपरांत 40 प्रतिशत फलोपज तथा 80 प्रतिशत वनोपज बेकार चले जाते हैं। इनके संरक्षण की ढांचागत व्यवस्था हो। स्वयं सहायता समूहों को विशेष सहायता प्रदान कर सक्रिय किया जाए। उनके उत्पादों की गुणवत्ता व विपणन की ज़िम्मेदारी प्रशासन ले। आवश्यक है कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के संवर्धन संरक्षण और विकास कार्य का प्रबंधन स्थानीय ग्रामसभा द्वारा हो। जरूरी है समाज जिम्मेदार बने।
निष्कर्ष
आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था में सामुदायिक विकास तथा योजनाबद्ध विकास की अन्य अनेक योजनाओं के माध्यम से गांवों की हालत बेहतर बनाने और गांव वालों के लिए रोजगार के अवसर जुटाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता रहा है। 73वें संविधान संशोधन के जरिए पंचायती राज संस्थाओं को अधिक मजबूत तथा अधिकार-सम्पन्न बनाया गया और ग्रामीण विकास में पंचायतों की भूमिका काफी बढ़ गई है। पंचायतों में महिलाओं व उपेक्षित वर्गों के लिए आरक्षण से गांवों के विकास की प्रक्रिया में सभी वर्गों की हिस्सेदारी होने लगी है। इस प्रकार से गांवों में शहरों जैसी बुनियादी जरूरतें उपलब्ध करवाकर पलायन की प्रवृत्ति को सुलभ साधनों से रोका जा सकता है।
Dharmendra Aarya
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