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2 अक्टूबर, उत्तराखंड का काला दिन, पढ़िए भूपेश पंत की कलम से

2 अक्टूबर, उत्तराखंड का काला दिन, पढ़िए भूपेश पंत की कलम से

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by October 2, 2020 News

2 अक्टूबर दिल्ली चलो.. ये नारा 1994 के उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान दिया गया। इसी सिलसिले में लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिये नैनीताल से हम लोगों का एक दल कुमाऊँ के तत्कालीन अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ की पद यात्रा पर निकला। चौखुटिया, भिकियासैण, द्वाराहाट, सोमेश्वर और कौसानी होते हुए हमने बेरीनाग, डीडीहाट और पिथौरागढ़ पहुँच कर नैनीताल वापसी की। इस दौरान हमने कई जगह नुक्कड़ सभाएं और जनसभाएं कर आंदोलन की दशा और दिशा पर बात की।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन को यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने पहाड़ बनाम शेष मैदान का रंग देकर राजनीतिक ध्रुवीकरण का हथियार बना लिया था। लिहाज़ा ये पूरी आशंका थी कि दो अक्टूबर का कार्यक्रम विफल करने के लिये सरकार सीमाएँ सील कर सकती है। ये सोच कर मैं अपने एक मित्र के साथ 29-30 सितंबर की रात नैनीताल से टूरिस्ट बस के फर्श पर बैठ कर ही दिल्ली निकल गया। वहाँ पहुँच कर मायापुरी, बुराड़ी आदि जगहों पर प्रवासी उत्तराखंडी माताओं बहिनों को पूरे जोश खरोश के साथ लंच पैकेट बनाते हुए देखा। उनका आभार जताया और राज्य में आंदोलन की ज़मीनी स्थिति की जानकारी दी।

दो अक्टूबर की अल सुबह जब सूरज भी नहीं निकला था, हमें ये जानकारी मिली कि मुजफ्फरनगर में गढ़वाल की ओर से आ रहे पूर्व सैनिकों, महिलाओं, कर्मचारियों और छात्रों की गाड़ियों को रोक कर उनके साथ बदसलूकी की गयी है। इन अपुष्ट ख़बरों के साथ हम लोग सुबह पश्चिमी दिल्ली से जनगीत गाते हुए बसों में लाल किले की तरफ़ रवाना हुए। उस वक़्त न तो मीडिया आज की तरह तकनीक आधारित था और न ही इतना लंपट। बहरहाल जैसे जैसे लाल किले पर भीड़ बढ़ती रही, आंदोलन से जुड़े राजनीतिक नेताओं के बीच महफ़िल को लूट लेने की होड़ सी मंच पर दिखने लगी। रामपुर तिराहे में उत्तराखंड की महिलाओं के साथ पुलिस के वहशियाना और कायराना कृत्य के समाचार जैसे जैसे फैलते रहे, प्रदर्शन उग्र होता गया। कई जगह लोगों ने आँसू गैस के गोले पकड़ कर पुलिस पर ही फेंक दिये। मंच पर फायरिंग, किले की दीवार को पहाड़ की तरह फतह करते नौजवान, घुड़सवार पुलिस का लाठीचार्ज, कई लोगों को गिरफ़्तार कर तिहाड़ भेजना जैसे कई दृश्य आज भी आंखों के आगे घूम जाते हैं।

गांधी जयंती के दिन पूर्व सैनिकों के हथियारबंद होने की पूर्व सूचना के बहाने उत्तराखंड की महिलाओं पर यूपी की सरकार के इशारे पर जो अत्याचार हुआ उसने राज्य के लोगों के लिये इस दिन को हमेशा के लिये काले दिन में बदल दिया। छब्बीस साल बाद आज भी न तो मुजफ्फरनगर कांड के पीड़ितों को न्याय मिला है और न दोषियों को सजा।

एक बात और, महिलाओं पर रामपुर तिराहे में हुए इस सरकार प्रेरित अत्याचार के बाद पहाड़ के कई हिस्सों से लोगों की प्रतिक्रियाएं भी कम विचलित करने वाली नहीं थीं। ये कहा गया कि महिलाओं को किसने कहा था रसोई छोड़ कर बाहर निकलने को। कहीं कहीं से आंदोलन में शामिल रही महिलाओं को घर से निकालने या तलाक देने की घटनायें भी पढ़ने को मिलीं। बाकी राज्य सेनानियों और नेताओं की उग आयी भीड़ के अलावा इस आंदोलन का हश्र क्या हुआ, उसे बीस साल के हो चुके उत्तराखण्ड राज्य की नब्ज़ पकड़ कर आसानी से जाना जा सकता है।

भूपेश पन्त, सलाहकार संपादक, मिरर उत्तराखंड

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