कारगिल शहीद कैप्टन मनोज पाण्डेय के जन्मदिन पर उनकी बहादुरी की बेमिसाल कहानी
देश में एक ओर भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा लगाने वाले लोग है मगर देश को जोड़े रखने वालो की भी कमी नही है हम आज बात कर रहे है कारगिल शहीद कैप्टन मनोज पाण्डेय जिनका जन्म आज के ही दिन 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश, सीतापुर जिले के रुधा गांव में हुआ था। वह मूल रूप से उत्तराखंड से ताल्लुक रखने वाले श्री गोपी चंद पांडे के पुत्र थे।
कैप्टन मनोज पाण्डेय को 1990 में उत्तर प्रदेश निदेशालय के जूनियर डिवीजन एनसीसी का सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुना गया था। इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज ने प्रतियोगी परीक्षा पास करके पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया। ट्रेनिंग करने के बाद वह 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने। एनडीए में दाखिले के लिए मनोज पांडेय को SSB के इंटरव्यू की बाधा पार करनी थी। वह इंटरव्यू का आखिरी दिन था। इंटरव्यू पैनल सामने बैठा था। मनोज से सवाल पूछा गया, ‘आर्मी क्यों जॉइन करना चाहते हो?’ मनोज ने जो जवाब दिया उसे सुनकर वहां मौजूद हर शख्स चौंक गया। उनके सामने बैठे इस दुबले-पतले लड़के ने कहा था, ‘मुझे परमवीर चक्र चारिए।
गोरखा रेजीमेंट के लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे सियाचिन की तैनाती के बाद छुट्टियों पर घर जाने की तैयारी में थे लेकिन अचानक 2-3 जुलाई की रात उन्हें बड़े ऑपरेशन की जिम्मेदारी सौंपी गई। लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को खालुबार पोस्ट फतह करने की जिम्मेदारी मिली. रात के अंधेरे में मनोज कुमार पांडे अपने साथियों के साथ दुश्मन पर हमले के लिए कूच कर गए।
दुश्मन ऊंचाई पर छिपा बैठ कर नीचे के हर मूवमेंट पर नजर रखे हुए था। एक बेहद मुश्किल जंग के लिये मनोज कुमार अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहे थे। पाकिस्तानी सेना को मनोज पांडे के मूवमेंट का जैसे ही पता चला उसने ऊंचाई से फायरिंग शुरु कर दी. लेकिन फायरिंग की बिना कोई परवाह किये मनोज काउंटर अटैक करते हुए और हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए आगे बढ़ रहे थे। गोलियों से छलनी शरीर के बावजूद अकेले ही पाक के 4 बंकरों को परमवीर चक्र विजेता पाण्डेय ने उड़ाया।
पाकिस्तान के साथ कारगिल का युद्ध बहुत से कारणों से विशेष कहा जाता है। एक तो यह युद्ध बेहद कठिन और ऊँची चोटियों पर लड़ा गया, जो बर्फ से ढकी और दुर्गम थीं, साथ ही यह युद्ध पाकिस्तान की लम्बी तैयारी का नतीजा था जिसकी योजना उसके मन में बरसों से पल रही थीं। साल 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अमन और भाईचारे की बस लेकर लाहौर रवाना हुए थे। लेकिन उस वक्त पाकिस्तान करगिल जंग की तैयारी पूरी कर चुका था। इसी युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर कैप्टन मनोज कुमार पांडे अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गई और जीत कर ही माने। भले ही, इस कोशिश में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा।
मनोज पांडे की शहादत ने उसके जवानों को इतना उत्तेजित कर दिया था कि वह पूरी दृढ़ता और बहादुरी से दुश्मन पर टूट पड़े थे और विजयश्री हथिया ली थी। मनोज कुमार पांडे 24 वर्ष की उम्र जी देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए। भले ही उनके साथी कहते रहे कि उन्होंने कभी बचपन के आनन्द से मुँह नहीं मोड़ा, लेकिन देश के प्रति वह इतना गम्भीर समर्पण जी गए, जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। शहीद कैप्टन मनोज पाण्डेय के आखिरी शब्द “ना छोडून” थे।
नीतीश जोशी
बागेश्वर, उत्तराखंड
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