पहाड़ और साहित्य दोनों को खलेगा शेखर जोशी का निधन, पढ़िए मिरर उत्तराखंड का खास संपादकीय
5 Oct. 2022. प्रख्यात साहित्यकार शेखर जोशी का निधन न सिर्फ साहित्य जगत के लिए बल्कि उत्तराखंड के पहाड़ों के लिए भी एक बड़ी क्षति है। मंगलवार दोपहर को शेखर जोशी का निधन गाजियाबाद के एक अस्पताल में हो गया, वह 90 वर्ष के थे।
शेखर जोशी उत्तराखंड में जन्मे उन विरले साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने अपने लेखन से उत्तराखंड के तत्कालीन समाज गांव-घरों को दुनिया से परिचित करवाया, पहाड़ से उनका खास लगाव था और यह उनकी कहानियों में भी दिखता है! दाज्यू, कोसी का घटवार और मेरा पहाड़ जैसी कृतियां उनके पहाड़ से लगाव को साफ दिखाती हैं।
शेखर जोशी की प्रारंभिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई, उन्होंने कुछ समय के लिए रक्षा विभाग में नौकरी भी की, एक समय के बाद नौकरी छोड़कर वह स्वतंत्र लेखन में लग गए। प्रयागराज इलाहाबाद में उन्होंने अपना घर बनाया और यहीं से अपने जीवन के अधिकतर लेखन को अंजाम दिया। शेखर जोशी का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में सितंबर 1932 में हुआ था।
दाज्यू, कोशी का घटवार, बदबू, मेंटल जैसी उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। पहाड़ी इलाकों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूरों के हालात, शहरी-कस्बाई और निम्नवर्ग के सामाजिक-नैतिक संकट, धर्म और जाति में जुड़ी रुढ़ियां – ये सभी उनकी कहानियों के विषय रहे हैं।
पहाड़ से लगाव उनकी कई रचनाओं में साफ झलकता है, अपनी कविता धानरोपाई में वह लिखते हैं ….
” आज हमारे खेतों में रोपाई थी धानों की
घर में
बड़ी सुबह से हलचल मची रही काम-काज की ।
खेतों में
हुड़के की थापों पर गीतों की वर्षा बरसी ।
मूंगे-मोती की मालाओं से सजी
कामदारिनों ने लहंगों में फेंटे मारे”
उनकी एक रचना कोसी का घटवार काफी प्रसिद्ध हुई थी इस रचना में तत्कालीन पहाड़ के जनजीवन को काफी नजदीक से वर्णित किया गया है उदाहरण के तौर पर इस रचना का एक छोटा सा हिस्सा ” ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसांईं फौज में गया था। पर फौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया। पैंट के साथ और भी कितनी स्मृतियां संबध्द हैं। उस बार की छुट्टियों की बात .. कौन महीना? हां, बैसाख ही था। सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड वन की आग की तरह खबर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढे, सभी उससे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एकदम साफ, जगमग, लाल-नीली धारियोंवाली दरी आंगन में बिछानी पडी थी लोगों को बिठाने के लिए। खूब याद है, आंगन का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढे, सभी आए थे। सिर्फ चना-गुड या हल्द्वानी के तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसांईं को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसांईं की आंखें उस भीड में जिसे खोज रही थीं, वह वहां नहीं थी। नाला पार के अपने गांव से भैंस के कटया को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। पर गुसांई उस दिन उससे मिल न सका। गांव के छोकरे ही गुसांईं की जान को बवाल हो गए थे। बुढ्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसांईं को देखकर सोबनियां का लडक़ा भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है। दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीडी या गपशप के लोभ में। एक दिन बडी मुश्किल से मौका मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से कांकड क़े शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गांव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड क़े नीचे गुसांईं के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल। खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसांईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच दी थी। टप-टप काफलों का गाढा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, ”इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बांह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी।”वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हंस दी थी। पुरानी बात – क्या कहा था गुसांईं ने, याद नहीं पडता ..तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूंगा, मेरी सुवा! या कुछ ऐसा ही। पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी – पहाडी पार के रमुवां ने, जो तुरी-निसाण लेकर उसे ब्याहने आया था? ”जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” लछमा के बाप ने कहा था। उसका मन जानने के लिए गुसांईं ने टेढे-तिरछे बात चलवाई थी।” प्रख्यात साहित्यकार शेखर जोशी को मिरर उत्तराखंड की श्रद्धांजलि।
Neha Joshi, Chief Editor, Mirror Uttarakhand
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