उत्तराखंड की केदारघाटी के गांवों में पांडव नृत्य, देवभूमि की अदभुत परंपरा को जानिए
आपने रामलीला या कृष्णलीला तो सुनी होगी, लेकिन क्या कभी आपने पांडव लीला के बारे में सुना है ? दरअसल उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों खासकर केदारघाटी में पांडव लीला का आयोजन किया जाता है। उत्तराखंड से पांडवों का गहरा रिश्ता रहा है, अपने वनवास के दौरान पांडवों को उत्तराखंड के जौनसार इलाके के राजा विराट ने शरण दी थी, वहीं जब पांडव अपने जीवन के अंतिम दौर में स्वर्ग की ओर गए तो वो भी उत्तराखंड के रास्ते। कहा जाता है कि पांडव केदार घाटी से होते हुए ही स्वर्ग गए, यही कारण है कि यहां उनकी पूजा की जाती है और उन्हें याद किया जाता है उनकी लीलाओं के मंचन के जरिये।
अपने आप में पांडव लीला कई हिस्सों में बंटी होती है जिनमें प्रमुख चक्रब्यूह, कमलब्यूह और गरुड़ब्यूह हैं, कहा जाता है कि ये सब वो ब्यूह रचनाएं हैं जो पांडवों ने यहां के लोगों को बताई थी, मुख्य रूप से ये आयोजन अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के किनारे बसे गांवों में होते हैं क्योंकि पांडव इसी रास्ते से स्वर्ग को गए थे। इन सब लीलाओं में उत्तराखंड के औजियों का मुख्य स्थान होता है जिनके गायन और वाद्य के साथ पांडव मनुष्य शरीर में आकर नृत्य करते हैं, जिन लोगों के शरीर में पांडव आते हैं उन्हें पश्वा कहते हैं।
स्वर्ग जाने से पहले पांडवों ने अपने हथियार भी केदारघाटी के लोगों को दे दिये थे, जो आज भी यहां के मंदिरों में पूजे जाते हैं, ये भी कहा जाता है कि यहां के अधिकतर बड़े मंदिरों जैसे केदारनाथ, बद्रीनाथ और दूसरे मंदिरों का भी सबसे पहले निर्माण पांडवों ने ही करवाया था। इन लीलाओं का आयोजन मुख्य रूप से जनवरी और फरवरी के महीनों में किया जाता है।
नृत्य या लीलाएं भी विभिन्न प्रकार के होती हैं जैसे हाथी कौथिग, जिसमें हाथी को युद्ध में शामिल कर मंचन होता है तो वहीं दुर्योधन वध लीला में दुर्योधन के वध का मंचन होता है, इसी प्रकार दूसरे कौथिग का आयोजन भी होता है।
Deepika Datt, Dehradun
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