पहाड़ के रग-रग में बसी हुई है घुघुती, चैत के महीने से है विशेष लगाव, गीतों और लोककथाओं में घुघुती
घुघुती पक्षी उत्तराखंड के लोक में इस तरह से रची बसी है कि इसके बिना पहाड़ के लोक की परिकल्पना संभव नहीं है। घुघुती कि आवाज सुनने के लिए लोग तरस जाते हैं। एक बार जो घुघुती के सुरीली घुरून सुन ले वो कभी भी घुघुती को भूल नहीं सकता है। इसकी सुरीली आवाज को सुनने के लिए हर किसी का बार बार मन करता है। घुघुती को संदेश वाहक के रूप में भी जाना जाता है। खासतौर पर चैत के महीने पहाड़ के गांवो के जंगलो में घुघूती की सुरीली आवाज डांडी कांठियों में गूंजती है। जिसको सुनकर बेटी – बहुओं को अपने मैत / मायका की याद / मैत की निराई/ खुद लगती है और वे अपने मैत / मायका के रैबार / कुशलछेम, चैत के कलेऊ / भिटोली का इंतजार करती हैं। घुघुती पहाड़ का एकमात्र पक्षी है जिस पर सबसे ज्यादा गीत बने हैं जिन्हें हर कोई सुनना चाहता है। प्रख्यात गढवाली लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जी द्वारा चैत और घुघुती पर एक बेहद खुदेड गीत भी गाया है, जिसको सुनकर हर किसी की आंखें भर आती है…
घुघुती घुरोण लगी म्यारा मैत की
बौडी बौडी ऐगी ऋतू , ऋतू चैत की
डांडी कांठियों को ह्यूं गौली गे होलू
म्यारा मैता कु बौण, मौली गे होलू
चखुला घोलू छोडी , उड़णा ह्वाला
बैठुला मैतुडा कु , पेटणा ह्वाला
घुघुती घुरोण लगी हो ………………
तिबरी मा बैठ्या होला, बाबाजी उदास
बाटु हेरणी होली मांजी, लगी होली आस
कब म्यारा मैती औजी, दिशा भेंटी आला
कब म्यारा भै बैणियों की राजी खुशी ल्याला
घुघुती घुरोण लागी म्यार मैत की
बौडी बौडी ऐगे ऋतू , ऋतू चेत की…..
वहीं कुमाऊँनी लोकगायक स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी ने अपनी सुरीली आवाज में आम के पेड के ऊपर बैठी घुघुती पर एक बेहतरीन गीत गाया…
घुघुती ना बासा, घुघुती ना बासा…
आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा
तेर घुरु घुरू सुनी मै लागू उदासा
स्वामी मेरो परदेसा, बर्फीलो लदाखा
घुघुती ना बासा, घुघुती ना बासा…
रीतू आगी घनी घनी, गर्मी चैते की
याद मुकू भोत ऐगे अपुना पति की
घुघुती ना बासा, घुघुती ना बासा…
तेर जैस मै ले हुनो, उड़ी बेर ज्यूनो
स्वामी की मुखडी के मैं जी भरी देखुनो
घुघुती ना बासा, घुघुती ना बासा…
उडी जा ओ घुघुती, नेह जा लदाखा
हल मेर बते दिये, मेरा स्वामी पासा
घुघुती ना बासा, घुघुती ना बासा…
आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा…
वहीं किशन महिपाल नें भी घुघुती पर बहुत ही शानदार गीत गाया है जो लोगों को बहुत पसंद भी आया..
किंगरी का छाला घुघुती, पांगर का डाला घुघुती
तु फुर्र उडांदी घुघुती, तु मल्यो रंग की घुघुती..
दूसरी ओर गांवो में बच्चों को सुलाने के लिये भी इसकी घुरघुर का प्रयोग मां किया करती हैं। बच्चों को पैरों पर बिठा कर घुघूती बासूती कहते हुए झुलाया जाता है। बच्चे थकने के साथ साथ मज़े भी बहुत लेते हैं।
घुघुती पक्षी के बारे में लोककथाओं में कहा गया है कि एक विवाहिता से मिलने उसका भाई उसके ससुराल आया था। जहाँ पहुंचने पर उसने देखा की बहन सो रही थी इसलिए भाई ने उसे उठाना उचित नहीं समझा। वह पास बैठा उसके उठने की प्रतीक्षा करता रहा। जब जाने का समय हुआ तो उसने बहन के चरयो (मंगलसूत्र) को उसके गले में में आगे से पीछे कर दिया और चला गया । जब वह उठी तो चरयो देखा। उसने अनुमान लगाया शायद कोई आया था। पडोस में पता किया तो मालूम चला की उसका भाई आया था और मिठाई रखकर वापस लौट गया। उसे बहुत दुख हुआ कि भाई आया और भूखा उससे मिले बिना चला गया, वह सोती ही रह गई। वह रो रोकर यह पंक्तियाँ गाती हुई मर गई..
भै आलो मैं सूती
भै भूक गो, मैं सूती..
(भै = भाई
आलो=आया
भूक गो =भूखा चला गया)
मरने के बाद उसने ही फिर चिड़िया बन घुघुति के रूप में जन्म लिया। घुघुति के गले में, चरयो के मोती जैसे पिरो रखे हों, वैसे चिन्ह होते हैं। ऐसा लगता है कि चरयो पहना हो और आज भी वह यही गीत गाती है :
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती..
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि घुघुती के बिना पहाड़ के लोक की परिकल्पना नहीं की जा सकती !
Sanjay Chauhan, Journalist, Chamoli
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