कौन हैं पहाड़ों के नये ककड़ी चोर, किसने चुराई भागीरथी आमा की ककड़ी, पढ़िए आपको जड़ों से जोड़ता ये आलेख
पहाड़ों की पहाड़ जैसी जिन्दगी जीते-जीते बहुत बड़ा बदलाव हो गया। चंद राजाओं की प्राचीन राजधानी चंपावत के आसपास कई गांव हैं। ये गांव भी इस बदलाव से अछूते नहीं रहे। इन नजदीकी गांवों को आम बोली में चाराल कहा जाता है। राजबुङ्गा (वर्तमान तहसील दफ़तर) किले से चारों तरफ फैले हुए ये गाँव दिखते हैं।
इसी चाराल के एक गाँव में बहुत से परिवार धीरे-धीरे एक-दूसरे को देख कर माल-भाभर और तराई के साथ महानगरों में बस गए। कुछ लोग मात्र तीन किमी दूर चम्पावत नगर में भी आ गए। उत्तराखण्ड के अन्य गांवों की तरह यह गाँव भी बंजर होने लगा। उसकी बाखलियाँ (मकानों की लंबी पट्टी) उजाड़ हो गई। गाँव मे कुछ बचे-खुचे लोग ही रह गये, जो किसी न किसी मजबूरी से अपनी जड़ों के जाल में फसें थे। खास बात ये भी थी कि उन घरों में सिर्फ बड़े-बूढ़े ही जमे थे। हालांकि बुढ़ापे में खाँसते, छीकते, कराहते और सांस फुलाते उन लोगों का जीवन यापन हो ही रहा था। पुराने घरों की टपकती छत, दीमक लगे दरवाजे-खिड़कियां, दीवालों की झड़ती मिट्टी वाले इन उजड़ते घरों की हालत भी उन बुज़ुर्गों जैसी ही थी। गर्मियों की भरी दोपहरी हो या जाड़ों की लम्बी काली रातों का सन्नाटा, घर की दीवारें उनको काट खाने आती।
उस गांव में एक थी भागीरथी। वक्त के थपेड़ों के साथ अब वह भागीरथी आमा बन गई। उसका एक बेटा था खुशाल। प्राइमरी के हेड मास्टर से रिटायर होने के बाद वह भी माल-भावर की तरफ बस गया। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और परिवार की खुशियों के लिए । एक दिन खुशाल ने कहा ईजा (मां) तू भी मेरे साथ चल। यहाँ अकेली क्या करेगी। भागीरथी आमा बोली-“नहीं बेटा, मैं नहीं आती। जन्मभर सब दु:ख-सुख इस घर में देखे हैं । कहते हैं पुरखों के मकान में द्वार-मोल बंद करना अच्छा नहीं माना जाता है। वैसे भी अब उन्यासी वर्ष की उम्र हो गई है। ऊपर को जाने के दिन हुए, नीचे माल (मैदानी इलाके में) को जा कर क्या करूं?” उदास होकर खुशाल दु:ख बीमारी के वक्त, कुशल बात के लिए एक मोबाइल फोन अपनी कर्मठ मां को देकर चला गया।
ऐसा नही ठहरा, भागीरथी आमा अभी भी बहुत काम करने वाली ठहरी। आमा के काम का तरीका आज के जवान बेटे-बहुओ को आइना दिखाने वाला हुआ। पौ फटते ही उठना, गाय का काम करना, नहाना धोना , पूजा-पाठ सब काम समय से होते थे। थोड़ी बहुत घर के आस-पास साग सब्जी भी लगाई थी। आमा महीने में एक दिन घर से दूध, दही, ताजी साग-सब्जी, फल व पकवानों की पोटली रोडवेज वाले फतेह सिंह तड़ागी ड्राइवर के हाथ अपने नाती-पोतों के लिए भेजते रहती थी।
इस बार चाराल की होली भी कोरोना के ख़ौफ में बीती थी। जीवन जीने के लिए कर्मठ आदमी कोरोना को छोड़ अपना काम करते ही रहे। फिर भागीरथी आमा कैसे अपना काम-धाम छोड़ती। होली के टीके (दम्पत्ति टीका) वाले दिन कामदार आमा ने छोटी, छोटी सी थूलें (क्यारियां) बनाकर उनमें कद्दू, ककड़ी, लौकी, करेले आदि के गूदे डाल दिये। सभी की तरह वह भी ये मानती व कहती थी कि टीके दिन रोपे गये बीज की बेल खूब फलती हैं।
रूडी(गर्मी) के दिनों में शाम के समय उनमें पानी देना, देखरेख से समय के साथ धीरे-धीरे बेलें बढ़ने लगीं। आषाढ़ मध्य में पीले-पीले फूल, फुलझड़ियां लगने लगी। पहली ककड़ी आमा ने कुमाऊँ के गोरिल देवता के मूल थान (मन्दिर) में चढ़ाई।
हरियाली संग सावन भी आ गया तो लोक पर्व हरेला भी आ धमका। इसकी पूर्व संध्या में बारिश की चुनचुनाहट रुक गयी। शाम को जब बादल साफ हुये तो ककड़ी की बेल में एक दो ककडी दिखी।
रात को खा-पीकर के सोने से पहले आमा ने मन ही मन सोचा कल सुबह इसमें थोड़े पीनो (घुइयां)के गाबे, ककडी, हरेला, पकवान बना कर बाजार ले जाऊंगी और तड़ागी ड्राइवर के जरिये नाती-पोतों के लिए सामान भेज दूंगी। गौरल मंदिर में दिया-बाती भी जला जला दूंगी। बहुत साल से हरेले का मेला भी नहीं देखा है। अब तो गोरलचौड़ का मेला भी बाजार में ही होता है।
इन्हीं बात का सोच- विचार करते हुए वह पुरानी यादों में खो गई। ‘आहा! पुराना वक्त कितना अच्छा था। पूरे गांव में बड़े-बड़े परिवार थे। दु:ख-सुख, जंगल, खेत-खलिहान, घास कटाई सब काम मिलजुल कर होते थे। वह भी अपनी बेटी को रुक्मणी (जिसकी शादी अब बिशङ्ग, लोहाघाट हो गई थी) और खुशाल को लेकर हरेले के मेले में जाया करती थी। उस मेले में स्वाला, धौंन से आए हुए आम केले मिलते थे। जलेबी मिठाई आलू के गुटके, चाहा कि घुटुक।’ वह क्या-क्या याद करती?
ककड़ियों का ध्यान आते ही उसका मन फिर खतड़वा की यादों में पहुँच गया। खतड्वे की रात ककड़ियों को बचाना एक चुनोती होती थी। उस रात गांव में खुरापाती बच्चों द्वारा ककड़ियाँ चोरी जाती। सुबह जिसकी ककड़ियां चोरी हो जाती वह भड़ास निकालने के लिए खूब गाली देते थे। ये गालियाँ भी बड़ी अजीब होती थी। ककड़ी के बहाने कई पीढ़ियों का श्राद्ध गालियों में हो जाता। खुशाल के पिताजी कहते थे ‘अरे! इन नटखट बच्चों को सुबह-सुबह क्यों गाली देती हो। इस दिन ककड़ी की चोरी का रिवाज ही हुआ। हमने भी चोरी ठेरी। कहते हैं ककड़ी चोरी की गाली नहीं लगती है।” इन्हीं यादों में दिन भर की थकी हुई आमा को कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।
हरेले की सुबह चिड़ियों की चहचहाहट से पहले आमा जाग गई । गोठपात, नहाने-धोने के बाद एक लोटा चाय पी। तब तक हिंगला देवी की चोटी में सूरज की किरणें दिखने लगी। सब काम काज किए, पूजा की, हरेले की प्रतिष्ठा भी हो गई। गाय को आंगन में बाधते समय जब उसकी नजर झूल (बेल) में पड़ी तो ककड़ी गायब। आमा ने सोचा ये ककड़ी चोर इस बार हरेले को ही आ गए। गौर से देखा तो गीली जमीन में जानवर के पाँव के निशान दिखे। समझदार आमा को कारण समझने में देर नहीं लगी। ये काम ‘आम’ लोगों का न हो कर ‘खास’ प्राणियों का है। पता चल ही गया जंगली जानवरों की दांग ने रात में आकर ककड़ी की बेल नोच दी थी। वास्तव में आजकल पहाड़ में ये जंगली जानवर “नए वाले ककड़ी चोर” बन गए हैं ।
भगवत प्रसाद पाण्डेय।
पाटन (लोहाघाट), चंपावत
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