Uttarakhand हरेला पर्व मनाया, प्रकृति के सम्मान और संरक्षण को समर्पित है ये त्यौहार, जानिए इसके बारे में
आज गुरुवार को उत्तराखंड में हरेला पर्व मनाया गया, यह पर्व इंसान को प्रकृति का सम्मान और संरक्षण करना सिखाता है। मूल रूप से कुमाऊं में मनाए जाने वाले इस पर्व को कृषि से भी जोड़ा जाता है, पहाड़ों में खेती काफी विकट होती है और इस पर्व में भी उत्तराखंड के किसान की विकटता दिखती है। आइए आपको बताते हैं हरेला पर्व के बारे में….
यह पर्व वर्ष में तीन बार मनाया जाता है, पहला चैत मास में, दूसरा श्रावण मास में तथा तीसरा आश्विन मास में मनाया जाता है। सावन में मनाए जाने वाले हरेला पर्व को काफी धूमधाम से मनाया जाता है, एक किवदंती के अनुसार उत्तराखंड के कुमाऊंं के लोग भगवान शिव और हिमालय की पुत्री देवी पार्वती के विवाह की तिथि को उत्सव के रूप में मनाने के लिए सावन महीने का हरेला पर्व मनाते हैं। वहीं इस पर्व को कृषि से भी जोड़ा जाता है, इस दिन किसान अपनी फसल के अच्छी होने की प्रार्थना भी करते हैं। सावन लगने से नौ दिन पहले पांच या सात प्रकार के अनाज के बीज एक रिंगाल की छोटी टोकरी में मिटटी डाल के बोए जाते हैं, इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। 9 वें दिन इनकी गुड़ाई की जाती है और दसवें यानि कि हरेला के दिन इसे काटा जाता है। काट कर इसे अक्षत-चंदन से “रोग, शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते, इहागच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मंत्र से अभिमंत्रित किया जाता है। इसके बाद घर के बुजुर्ग इसको मंदिर में चढ़ाते हैं, घर की महिलाएं और कन्याएंं हरेले के पत्ते को लोगों के सिर और कान में रखकर आशीर्वाद लेते हैं। सिर में हरेला रखते वक्त आशीर्वाद स्वरुप जो पंक्तियां कही जाती हैं, वो इस प्रकार हैं…..
जी रया ,जागि रया ,
यो दिन बार, भेटने रया,
दुबक जस जड़ हैजो,
पात जस पौल हैजो,
स्यालक जस त्राण हैजो,
हिमालय में ह्यू छन तक,
गंगा में पाणी छन तक,
हरेला त्यार मानते रया,
जी रया जागी रया।
इस दिन लोग अपने घरों में पकवान बनाते हैं, महिलाएं अपने माता-पिता के घर जाकर लोगों को हरेला पूजती हैं और बड़े- बूढ़ों से आशीर्वाद लेती हैं।
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